रांची. राजधानी रांची से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है गिंजो ठाकुर गांव, जहां मां भवानी शंकर का 300 वर्ष पुराना मंदिर है। जहां एक ओर मंदिर जाने पर श्रद्धालुओं को भगवान के दर्शन कराएं जाते हैं, वहीं इस मंदिर में श्रद्धालुओं को भगवान के दर्शन की इजाजत नहीं है। भक्त पुजारी के माध्यम से प्रसाद चढ़ा कर अपनी श्रद्धा दिखाते हैं। साथ ही मंदिर के पुजारी भी भगवान के दर्शन नहीं कर पाते, क्योंकि भगवान का पूरा शरीर अंग वस्त्र से ढंका रहता है। जबकि पुजारी अंगवस्त्र बदलने और उन्हें स्नान कराने के लिए आंखों पर पट्टी बांध लेते हैं। कहते हैं कि प्रतिमा पूजनीय है, दर्शनीय नहीं, इसलिए ऐसा किया जाता है।
हर रोज लगती है भीड़, मंगलवार को विशेष आयोजन
मंदिर में यों तो हर दिन सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं, लेकिन मंगलवार को विशेष पूजा का आयोजन होता है। इस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा मनोवांछित कार्य होने पर श्रद्धालु मां भावनी शंकर मंदिर प्रागंण में बलि चढ़ाते हैं, जबकि पूजा घंटों होती है।
1965 में प्रतिमा हुई थी चोरी, 26 वर्ष बाद मिली
अष्टधातु की प्रतिमा को अपराधियों ने 1965 में चुरा लिया था। इसके बाद से मंदिर की रौनक समाप्त हो गई थी। लेकिन 26 वर्ष बाद रातू में सड़क निर्माण के दौरान हुई जमीन की खुदाई में प्रतिमा मिल गई।
मनोकामना हमेशा होती है पूरी
"हमेशा से परंपरा रही है कि राज परिवार के अलावा अन्य कोई भी दर्शन के लिए अंदर नहीं जा सकता। दर्शन के समय भी प्रतिमा ढकी रहती है। मुख्य पुरोहित पूजा विधि विधान से करते हैं। यहां से मांगी गई मनोकामना हमेशा पूरी होती है।" - जयप्रकाश शाहदेव, राजपरिवार के सदस्य.
प्रतिमा पूजनीय है, दर्शनीय नहीं
"प्रतिमा दर्शनीय नहीं, बल्कि पूजनीय है। इसलिए भगवान को स्नान कराने के साथ ही साथ उनका अंगवस्त्र आंखों पर पट्टी बांध कर बदला जाता है। प्रतिमा के संबंध में इससे ज्यादा कुछ नहीं बोल सकता हूं।" - मदन किशोर वैद्य, पुजारी.
मंदिर जयकुमार शाहदेव के अहाते में स्थित है। उन्होंने बताया कि 1543 ईस्वी में गुमला स्थित नवरत्नगढ़ के राजा यदुनाथ शाहदेव के विवाह के समय एक सिद्ध पुरुष महात्मा चेतनाथ ने भगवान की प्रतिमा दी थी। उसी प्रतिमा को करीब 300 वर्ष पहले कुंवर कमलनाथ शाहदेव ने गिंजो ठाकुरगांव में स्थापित किया। तब से अब तक यहां पूजा की परंपरा है।
source
हर रोज लगती है भीड़, मंगलवार को विशेष आयोजन
मंदिर में यों तो हर दिन सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं, लेकिन मंगलवार को विशेष पूजा का आयोजन होता है। इस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा मनोवांछित कार्य होने पर श्रद्धालु मां भावनी शंकर मंदिर प्रागंण में बलि चढ़ाते हैं, जबकि पूजा घंटों होती है।
1965 में प्रतिमा हुई थी चोरी, 26 वर्ष बाद मिली
अष्टधातु की प्रतिमा को अपराधियों ने 1965 में चुरा लिया था। इसके बाद से मंदिर की रौनक समाप्त हो गई थी। लेकिन 26 वर्ष बाद रातू में सड़क निर्माण के दौरान हुई जमीन की खुदाई में प्रतिमा मिल गई।
मनोकामना हमेशा होती है पूरी
"हमेशा से परंपरा रही है कि राज परिवार के अलावा अन्य कोई भी दर्शन के लिए अंदर नहीं जा सकता। दर्शन के समय भी प्रतिमा ढकी रहती है। मुख्य पुरोहित पूजा विधि विधान से करते हैं। यहां से मांगी गई मनोकामना हमेशा पूरी होती है।" - जयप्रकाश शाहदेव, राजपरिवार के सदस्य.
प्रतिमा पूजनीय है, दर्शनीय नहीं
"प्रतिमा दर्शनीय नहीं, बल्कि पूजनीय है। इसलिए भगवान को स्नान कराने के साथ ही साथ उनका अंगवस्त्र आंखों पर पट्टी बांध कर बदला जाता है। प्रतिमा के संबंध में इससे ज्यादा कुछ नहीं बोल सकता हूं।" - मदन किशोर वैद्य, पुजारी.
मंदिर जयकुमार शाहदेव के अहाते में स्थित है। उन्होंने बताया कि 1543 ईस्वी में गुमला स्थित नवरत्नगढ़ के राजा यदुनाथ शाहदेव के विवाह के समय एक सिद्ध पुरुष महात्मा चेतनाथ ने भगवान की प्रतिमा दी थी। उसी प्रतिमा को करीब 300 वर्ष पहले कुंवर कमलनाथ शाहदेव ने गिंजो ठाकुरगांव में स्थापित किया। तब से अब तक यहां पूजा की परंपरा है।
source
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें