रहस्यमयी पेड़

आंध्र प्रदेश के नालगोंडा में स्थित बरगद के इस पेड़ को जिसने भी देखा वह स्तब्ध रह गया। इस पर विभिन्न जंगली जानवरों की आकृतियां बनी हुई हैं। सांप, विच्छु, मगरमच्छ और शेर जैसे खतरनाक जानवरों के दृश्य ऐसे दिखते हैं मानों साक्षात किसी को घूर रहे हों, सामने वाले को निगल जाने के फिराक में हो। इस रहस्यमयी पेड़ के बारे में तमाम बातें कही जा रही हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि इस पेड़ के तनों पर किसी ने इन कलाकृतियों को गढ़ा है। उनका मानना है कि यह कोई चमत्कार नहीं है। वहीं बहुतयात लोगों का मानना है कि यह अनोखी प्रजाति का पेड़ है। जो कि पूरी दुनिय़ा में इकलौता है। चमत्कार और वास्तविकता के बीच बहस जारी है।
इस 'रहस्यमयी पेड़' को देख स्तब्ध हैं लोग, देखिए हैरतअंगेज तस्वीरें... 
बताते चलें कि नालगोंडा आंध्र प्रदेश का एक महत्‍वपूर्ण जिला है। आंध्र प्रदेश के बीच में स्थित इस स्‍थान का प्राचीन नाम नीलगिरी था। नालगोंडा को यदि पुरातत्‍वशास्त्रियों का स्‍वर्ग कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। पाषाणयुग और पूर्वपाषाण युग के अवशेष यहां पाए गए हैं। यहां तक कि कई जगह तो मौर्य वंश के अवशेष भी मिले हैं। केवल पुरातत्‍व की दृष्टि से ही नहीं बल्‍िक धार्मिक दृष्टि से भी इस स्‍थान का बहुत महत्‍व है। यहां के मेल्‍लाचुरवु को तो दक्षिण का काशी तक कहा जाता है।
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इसे किला का निर्माण पश्चिमी चालुक्‍य शासक त्रिभुवनमल्‍ला विक्रमादित्‍य चतुर्थ ने करवाया था इसलिए इस किले का नाम त्रिभुवनगिरी पड़ा। धीरे-धीरे ये भुवनगिरी हो गया और आज भोनगीर के नाम से जाना जाता है। यह किला एक चट्टान के ऊपर 609.6 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह खूबसूरत ऐतिहासिक किला वक्‍त के प्रभाव से अपने को बचाने में सक्षम रहा है जो यहां आने वाले पर्यटकों को आश्‍चर्यचकित करता है। पहाड़ी के ऊपर बाला हिसार नामक जगह से आसपास के इलाके का अद्भुत दृश्‍य दिखाई पड़ता है। इस किले का सबंध वीरांगना रानी रूद्रमादेवी और उनकी पौते प्रतापरुद्र के शासन से भी है।
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एक समय में यह किला रेचर्ला प्रमुखों का गढ़ माना जाता था। आज देखभाल के अभाव में यह खंडहर में तब्‍दील हो चुका है लेकिन इसका आकर्षण आज भी बरकरार है। पुरानी चीजों के शौकीनों के लिए यह स्‍थान वास्‍तव में दर्शनीय है। पुरातत्‍व की दृष्टि से इसका बहुत महत्‍व है। देवेरकोंडा किला सात पहाड़ों से घिरा है और नालगौंडा, महबूबनगर, मिरयालगुडा और हैदराबाद से सड़क मार्ग के जुड़ा हुआ है।
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पिल्‍ललमार्री एक गांव है जहां बहुत सारे प्राचीन मंदिर हैं। यह मंदिर ककातिया काल के वास्‍तुशिल्‍प की याद दिलाते हैं। खूबसूरती से तराशे गए खंबों की शोभा देखते ही बनती है। यहां शिलालेखों से काकतिया वंश के बारे में जानकारी मिलती है। कन्‍नड़, तेलगु में लिखा एक शिला लेख 1208 ईसवी में राजा गणपति के बारे में बताता है। इस जगह कुछ प्राचीन सिक्‍के भी मिले हैं।
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पिल्‍ललमार्री प्रसिद्ध तेलगु कवि पिल्‍लमार्री पिना वीरभद्रदु का जन्‍म स्‍थान भी है। इस गांव का केवल ऐतिहासिक महत्‍व ही नहीं बल्कि सांस्‍कृतिक और धार्मिक महत्‍व भी है। यहां भगवान चेन्‍नाकेसवस्‍वामी का मंदिर है जहां फरवरी-मार्च के महीने में उत्‍सव आयोजित किया जाता है जिसमें बड़ी संख्‍या में श्रद्धालु भाग लेते हैं।
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पोचमपल्‍लै का महत्‍व इसलिए अधिक है क्‍योंकि इसी जगह आचार्य विनोबा भावे ने 1950 में भूदान आंदोलन की शुरुआत की थी। इसके अंतर्गत दान की गई जमीनें गरीब भूमिहीन किसानों को दान करने की अपील की गई थी।
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कृष्‍णा नदी पर बना नागार्जुनसागर बांध सिंचाई के लिए प्रयुक्‍त होने वाला एक प्रमुख बांध है। पत्‍थरों से बना यह दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे ऊंचा बांध है। यह बांध दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मानवनिर्मित झील बनाता है। झील के पास बने टापू, जिसे नागार्जुनकोडा कहा जाता है, पर तीसरी ईसवी के बौद्ध सभ्‍यता के कुछ अवशेष्‍ा भी मिले हैं।
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महाचैत्‍य के ब्रह्मी में लिखे गए संकेतों से इन अवशेषों का सबंध भगवान बुद्ध से जोड़ा जाता है। नागार्जुनसागर बांध की खुदाई करते समय एक विश्‍वविद्यालय के अवशेष मिले थे। यह विश्‍वविद्यालय आचार्य नागार्जुन द्वारा संचालित किया जाता था। आचार्य नागार्जुन बहुत बड़े बौद्ध संत, विद्वान और दार्शनिक थे। वे बौद्ध धर्म के संदेशों का प्रचार करने नागार्जुनकोडा से अमरावती गए थे।
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पंगल मंदिर दक्षिण भारतीय मंदिर को सुंदर उदाहरण है। मंदिर परिसर का मुख्‍य मंदिर भगवान शिव को समर्पित है जिसके सामने नंदी मंडप स्थित है। मंदिर का वास्‍तुशिल्‍प अतिउत्‍तम है। मंदिर परिसर में कुल 66 खंबे हैं जिनमें से मंडप बीच में लगे चार खंबों पर नक्‍काशी से बहुत की खूबसूरती के साथ सजाया गया है। इनपर रामायण और महाभारत के चित्र उकेरे गए हैं।
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पंगल में एक और मंदिर है- चयाला सोवेश्‍वर मंदिर। यह मंदिर शिवलिंग की अद्भुत छाया के लिए जाना जाता है जिसके बारे में कहते हैं कि यह छाया सूर्योदय से सूर्यास्‍त तक एक जैसी ही र‍हती है। मंदिर का वास्‍तुशिल्‍प एकदम अलग है। इसे काकतिया वास्‍तु का सबसे कल्‍पनापूर्ण कार्य माना जाता है। चयाला सोवेश्‍वर मंदिर में रुद्रंबा के समय के बहुमूल्‍य शिलालेख भी देखे जा सकते हैं।
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