फूल और कांटे
हकीम लुकमान बड़े तत्वज्ञानी थे। बचपन में वह गुलाम थे। वह दिन-रात मालिक की सेवा में लगे रहते थे। उनके मालिक ने एक दिन लुकमान को जान-बुझकर एक कड़वी ककड़ी खाने को दी। मालिक ने सोचा था कि लुकमान इसे चखते ही फेंक देगा मगर वह पूरी ककड़ी बिना मुंह बनाए खा गए। उनके चेहरे के हाव-भाव से ऐसा बिल्कुल नहीं लगा कि ककड़ी उन्हें कड़वी लगी। मालिक ने पूछा, 'वह ककड़ी तो कड़वी थी, उसे तू पूरी खा कैसे गया?' लुकमान ने कहा, 'मेरे अच्छे मालिक! आप मुझे रोज ही खाने-पीने की कितनी चीजें देते हैं, उन्हीं के सहारे मेरा जीवन चल रहा है। आपने मुझे जब हमेशा इतनी सारी अच्छी वस्तुएं दीं और उन्हें मैंने स्वीकार कर अपना जीवन चलाया तो आज अगर कड़वी चीज आ गई, तो उसे भी स्वीकार क्यों न करता?'
लुकमान ने फिर कहा, 'मुझे तो आपकी बगिया में ही रहना है। मुझे तो आपके फूलों से भी उतना ही प्यार है, जितना कांटों से।' मालिक बड़ा उदार व समझदार था। वह सोचने लगा कि उस मालिक ने हमें जन्म दिया, हमारा पालन किया। उसने हमें इतने सुख में रखा तो अगर कभी-कभार विपत्तियां आ भी जाएं तो हमें उन्हें ईश्वर की कृपा मानकर ही कबूल करना चाहिए। फिर उसने लुकमान से कहा, 'तुमने मुझे सबक सिखाया है कि जो परमात्मा हमें तरह-तरह के सुख देता है उसके हाथ से अगर कभी दुख भी मिले तो उसे खुशी से स्वीकार करना चाहिए।' मालिक ने लुकमान का बड़ा सम्मान किया और उसी दिन उन्हें आजाद कर दिया।
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