प्रणाम विनय का सूचक है
प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत् नरश्चस्तिमात्मनः।
'मनुष्य को प्रतिदिन अपने आचरण का अवलोकन करते रहना चाहिए।'
स्वामी अखण्डानंदजी सरस्वती प्रायः श्री उड़िया बाबाजी, श्रीशास्त्रानंदजी, श्री हरि बाबाजी, श्री आनंदमयी माँ आदि भारतवर्ष के प्रसिद्ध सिद्ध महापुरुषों को प्रणाम करते थे।
दंड-ग्रहण के समय उन्हें कहा गया कि 'सबको प्रणाम नहीं करना चाहिए।' जिससे अखण्डानंदजी के मन में बड़ी दुविधा उत्पन्न हो गयी। इस पर उन्होंने श्री उड़िया बाबाजी महाराज से पूछा, तब उन्होंने समझाते हुए कहाः ''दीक्षा या उपदेश ग्रहण करना हो तो तब तो ब्राह्मण (जो ब्रह्म में रमा हुआ) हो इसका ध्यान रखना चाहिए परन्तु प्रणाम करना हो तब तो सबको करना चाहिए। प्रणाम भगवदबुद्धि से करना चाहिए, मनुष्यबुद्धि से नहीं। प्रणाम तो विनय का सूचक है, एक सदगुण है। तुम जिन महात्माओं को पहले प्रणाम करते रहे हो, उनको बिना विचार किये ही प्रणाम किया करो।"
बाबा का यह उपदेश अखण्डानंदजी ने धारण कर लिया और उन्हें फिर कभी किसी को प्रणाम करने में हिचक न हुई।
मनु महाराज ने 'मनुस्मृति' में कहा हैः
ऊर्ध्व प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते।।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्थन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
'बड़ों के आने पर छोटे के प्राण ऊपर चढ़ते हैं और जब वह उठकर प्रणाम करता है तो पुनः प्राणों को पूर्ववत् स्थिति में प्राप्त कर लेता है। जो नित्य पुरुष नित्य बड़ों को, वृद्धजनों-गुरुजनों को प्रणाम करता है और उनकी सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, यश और बल – ये चारों बढ़ते हैं।'
(2.120-121)
अतः हमारे कर्म व व्यवहार ऐसे हों कि बड़ों के हृदय से हमारे लिए आशीर्वाद निकलें, हमारे व्यवहार के कारण किसी के हृदय को ठेस न पहुँचे। इसी में हमारा मंगल छुपा है। मूर्ति को प्रणाम करने से भी लाभ होता है तो जिनमें जाग्रत देव बैठा है उनको प्रणाम करने में अहं आड़े क्यों आये? संत तुलसीदासजी इस बात की पुष्टि करते हैं-
सीय राममय सब जग पानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
वो सर सर नहीं जो हर दर पे झुकता रहे।
वो दर दर नहीं जहाँ सज्जनों का सर न झुके।।
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