श्रावस्ती। अंगुलिमाल बौद्ध कालीन एक दुर्दांत डाकू था जो राजा प्रसेनजित के राज्य श्रावस्ती में निरापद जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। एक डाकू जो बाद मे संत बन गया।
कौन था अंगुलिमाल
लगभग ईसा के 500 वर्ष पूर्व कोशल देश की राजधानी श्रावस्ती में एक ब्राह्मण पुत्र के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है। माता-पिता ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा।
अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के विरुद्ध कर दिया। आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उंगलियां काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे।
अहिंसक गुरु की आज्ञा मान कर हत्यारा बन गया और लोगों की हत्या कर के उनकी उंगलियों को काट कर उनकी माला पहनने लगा। इस प्रकार उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया।
भगवान बुद्ध और अंगुलिमाल
भगवान बुद्ध एक समय उसी वन से जाने को उद्यत हुए तो अनेक पुरवासियों-श्रमणों ने उन्हें समझाया कि वे अंगुलिमाल विचरण क्षेत्र में न जायें। अंगुलिमाल का इतना भय था कि महाराजा प्रसेनजित भी उसको वश में नहीं कर पाए।
भगवान बुद्ध मौन धारण कर चलते रहे। कई बार रोकने पर भी वे चलते ही गए। अंगुलिमाल ने दूर से ही भगवान को आते देखा। वह सोचने लगा - 'आश्चर्य है! पचासों आदमी भी मिलकर चलते हैं तो मेरे हाथ में पड़ जाते हैं, पर यह श्रमण अकेला ही चला आ रहा है, मानो मेरा तिरस्कार ही करता आ रहा है। क्यों न इसे जान से मार दूं।'
अंगुलिमाल ढ़ाल-तलवार और तीर-धनुष लेकर भगवान की तरफ दौड़ पड़ा। फिर भी वह उन्हें नहीं पा सका। अंगुलिमाल सोचने लगा - 'आश्चर्य है! मैं दौड़ते हुए हाथी, घोड़े, रथ को पकड़ लेता हूं, पर मामूली चाल से चलने वाले इस श्रमण को नहीं पकड़ पा रहा हूं! बात क्या है।
वह भगवान बुद्ध से बोला - 'खड़ा रह श्रमण!' इस पर भगवान बोले - 'मैं स्थित हूं अंगुलिमाल! तू भी स्थित हो जा।' अंगुलिमाल बोला - 'श्रमण! चलते हुए भी तू कहता है 'स्थित हूं' और मुझ खड़े हुए को कहता है 'अस्थित'। भला यह तो बता कि तू कैसे स्थित है और मैं कैसे अस्थित?'
भगवान बुद्ध बोले - 'अंगुलिमाल! सारे प्राणियों के प्रति दंड छोड़ने से मैं सर्वदा स्थित हूं तू प्राणियों में असंयमी है। इसलिए तू अस्थित है। अंगुलिमाल पर भगवान की बातों का असर पड़ा। उसने निश्चय किया कि मैं चिरकाल के पापों को छोड़ूंगा। उसने अपनी तलवार व हथियार खोह, प्रपात और नाले में फेंक दिए। भगवान के चरणों की वंदना की और उनसे प्रव्रज्या मांगी। 'आ भिक्षु!' कहकर भगवान ने उसे दीक्षा दी।
कौन था अंगुलिमाल
लगभग ईसा के 500 वर्ष पूर्व कोशल देश की राजधानी श्रावस्ती में एक ब्राह्मण पुत्र के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है। माता-पिता ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा।
अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के विरुद्ध कर दिया। आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उंगलियां काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे।
अहिंसक गुरु की आज्ञा मान कर हत्यारा बन गया और लोगों की हत्या कर के उनकी उंगलियों को काट कर उनकी माला पहनने लगा। इस प्रकार उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया।
भगवान बुद्ध और अंगुलिमाल
भगवान बुद्ध एक समय उसी वन से जाने को उद्यत हुए तो अनेक पुरवासियों-श्रमणों ने उन्हें समझाया कि वे अंगुलिमाल विचरण क्षेत्र में न जायें। अंगुलिमाल का इतना भय था कि महाराजा प्रसेनजित भी उसको वश में नहीं कर पाए।
भगवान बुद्ध मौन धारण कर चलते रहे। कई बार रोकने पर भी वे चलते ही गए। अंगुलिमाल ने दूर से ही भगवान को आते देखा। वह सोचने लगा - 'आश्चर्य है! पचासों आदमी भी मिलकर चलते हैं तो मेरे हाथ में पड़ जाते हैं, पर यह श्रमण अकेला ही चला आ रहा है, मानो मेरा तिरस्कार ही करता आ रहा है। क्यों न इसे जान से मार दूं।'
अंगुलिमाल ढ़ाल-तलवार और तीर-धनुष लेकर भगवान की तरफ दौड़ पड़ा। फिर भी वह उन्हें नहीं पा सका। अंगुलिमाल सोचने लगा - 'आश्चर्य है! मैं दौड़ते हुए हाथी, घोड़े, रथ को पकड़ लेता हूं, पर मामूली चाल से चलने वाले इस श्रमण को नहीं पकड़ पा रहा हूं! बात क्या है।
वह भगवान बुद्ध से बोला - 'खड़ा रह श्रमण!' इस पर भगवान बोले - 'मैं स्थित हूं अंगुलिमाल! तू भी स्थित हो जा।' अंगुलिमाल बोला - 'श्रमण! चलते हुए भी तू कहता है 'स्थित हूं' और मुझ खड़े हुए को कहता है 'अस्थित'। भला यह तो बता कि तू कैसे स्थित है और मैं कैसे अस्थित?'
भगवान बुद्ध बोले - 'अंगुलिमाल! सारे प्राणियों के प्रति दंड छोड़ने से मैं सर्वदा स्थित हूं तू प्राणियों में असंयमी है। इसलिए तू अस्थित है। अंगुलिमाल पर भगवान की बातों का असर पड़ा। उसने निश्चय किया कि मैं चिरकाल के पापों को छोड़ूंगा। उसने अपनी तलवार व हथियार खोह, प्रपात और नाले में फेंक दिए। भगवान के चरणों की वंदना की और उनसे प्रव्रज्या मांगी। 'आ भिक्षु!' कहकर भगवान ने उसे दीक्षा दी।
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