सत्संग जीवन का कल्पवृक्ष है


सत्संग जीवन का कल्पवृक्ष है।
परमात्मा मिलना उतना कठिन नहीं है जितना कि पावन सत्संग का मिलना कठिन है। यदि सत्संग के द्वारा परमात्मा की महिमा का पता न हो तो सम्भव है कि परमात्मा मिल जाय फिर भी उनकी पहचान न हो, उनके वास्तविक आनन्द से वंचिर रह जाओ। सच पूछो तो परमात्मा मिला हुआ ही है। उससे बिछुड़ना असम्भव है। फिर भी पावन सत्संग के अभाव में उस मिले हुए मालिक को कहीं दूर समझ रहे हो।
पावन सत्संग के द्वारा मन से जगत की सत्यता हटती है। जब तक जगत सच्चा लगता है तब तक सुख-दुःख होते हैं। जगत की सत्यता बाधित होते ही अर्थात् आत्मज्ञान होते ही परमात्मा का सच्चा आनन्द प्राप्त होता है। योगी, महर्षि, सन्त, महापुरुष, फकीर लोग इस परम रस का पान करते हैं। हम चाहें तो वे हमको भी उसका स्वाद चखा सकते हैं। परन्तु इसके लिए सत्संग का सेवन करना जरूरी है। जीवन में एक बार सत्संग का प्रवेश हो जाय तो बाद में और सब अपने आप मिलता है और भाग्य को चमका देता है।
दुःखपूर्ण आवागमन के चक्कर से छूटने के लिए ब्रह्मज्ञान के सत्संग के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं..... कोई रास्ता नहीं।
सत्संग से वंचित रहना अपने पतन को आमंत्रण देना है। इसलिए अपने नेत्र, कर्ण, त्वचा आदि सभी को सत्संगरूपी गंगा में स्नान कराते रहो जिससे काम विकार तुम हावी न हो सके।
सत्संग द्वारा प्राप्त मार्गदर्शन के अनुसार पुरुषार्थ करने से भक्त पर भगवान या भगवान के साथ तदाकार बने हुए सदगुरु की कृपा होती है और भक्त उस पद को प्राप्त होता है जहाँ परम शांति मिलती है।
जो तत्त्ववेत्ताओं की वाणी से दूर हैं उन्हें इस संसार में भटकना ही पड़ेगा। चाहे वह कृष्ण के साथ हो जाये या क्राइस्ट के साथ चाहे अम्बा जी के साथ हो जाय, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
भगवान ने हमें बुद्धि दी है तो उसका उपयोग बन्धन काटने में करें न कि बन्धन बढ़ाने में, हृदय को शुद्ध करने में करें न कि अशुद्ध करने में। यह तभी हो सकता है जबकि हम सत्संग करें।
सदा यही प्रयत्न रखो कि जीवन में से सत्संग न छूटे, सदगुरु का सान्निध्य न छूटे। सदगुरु से बिछुडा हुआ साधक न जीवन के योग्य रहता है न मौत के।

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