रायपुर।छत्तीसगढ़ राज्य के चंपा-जांजगीर जिले में आने वाले शिवरी नारायण मंदिर को गुप्त तीर्थ स्थल भी कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान नीलमाधव का नारायणी रूप गुप्तरूप से विराजमान हैं। इसके पीछे की कहानी भी बड़ी रोचक है। प्राचीनकाल में शिवरीनारायण श्रीसिंदूर गिरि का क्षेत्र था, जहां घने जंगल होते थे और इस क्षेत्र में शबर जाति का शासन हुआ करता था।
ऐसी मान्यता है द्वापरयुग के अंतिम चरण में कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध खत्म होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे। कृष्ण को श्रापवश एक जरा नाम के शबर का तीर लगा, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। वैदिक रीति से श्रीकृष्ण का दाह संस्कार किया गया, लेकिन उनका मृत शरीर नहीं जला।
इस कारण उनका मृत शरीर चिता से निकालकर समुद्र में प्रवाहित किया गया। इधर पश्चाताप की आग में जल रहे शबर को जब कृष्ण के मृत शरीर का समुद्र में प्रवाहित होने का समाचार मिला है तो वह तुरंत जाकर शरीर को समुद्र में से निकाल लाया।
इसी श्रीसिंदूरगिरि क्षेत्र में एक जलस्त्रोत के किनारे बांस के पेड़ के नीचे रखकर उनकी पूजा और तंत्र साधना करने लगता है। उनका मृत शरीर आगे चलकर नील माधव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहीं इंद्रभूति नामक तांत्रिक नीलमाधव की मूर्ति को वहां से उठाकर ले जाता है और संभल पहाड़ी की गुफा में ले जाकर तंत्र साधना करने लगता है।
इधर, जरा शबर अपने नीलमाधव को न पाकर खूब रोता है और खाना पीना बंद कर देता है। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर नीलमाधव अपने नारायणी रूप के दर्शन देकर गुप्त रूप से यहां विराजमान होने का वरदान देते हैं। तब से भगवान नारायण इस मंदिर में विराजमान हैं, जो भक्त हर साल माघपूर्णिमा को भगवान नारायण के दर्शन करता है। वह मोक्ष पाकर स्वर्ग जाता है।
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इस कारण उनका मृत शरीर चिता से निकालकर समुद्र में प्रवाहित किया गया। इधर पश्चाताप की आग में जल रहे शबर को जब कृष्ण के मृत शरीर का समुद्र में प्रवाहित होने का समाचार मिला है तो वह तुरंत जाकर शरीर को समुद्र में से निकाल लाया।
इसी श्रीसिंदूरगिरि क्षेत्र में एक जलस्त्रोत के किनारे बांस के पेड़ के नीचे रखकर उनकी पूजा और तंत्र साधना करने लगता है। उनका मृत शरीर आगे चलकर नील माधव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहीं इंद्रभूति नामक तांत्रिक नीलमाधव की मूर्ति को वहां से उठाकर ले जाता है और संभल पहाड़ी की गुफा में ले जाकर तंत्र साधना करने लगता है।
इधर, जरा शबर अपने नीलमाधव को न पाकर खूब रोता है और खाना पीना बंद कर देता है। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर नीलमाधव अपने नारायणी रूप के दर्शन देकर गुप्त रूप से यहां विराजमान होने का वरदान देते हैं। तब से भगवान नारायण इस मंदिर में विराजमान हैं, जो भक्त हर साल माघपूर्णिमा को भगवान नारायण के दर्शन करता है। वह मोक्ष पाकर स्वर्ग जाता है।
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