जैसलमेर/जोधपुर.उत्साह, उमंग व हर्षोल्लास का त्यौहार स्वर्णनगरी में अपने आप में अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। आज भी ऐसी कई परंपराएं है जिनका निर्वाह लंबे समय से किया जा रहा है। स्वर्णनगरी में अभी भी होली के दिनों में श्लील ख्याल गाए जाते है। जिनका शहरवासी विरोध नहीं स्वागत करते हैं।
यहां तक की होली के दिनों में भगवान को भी श्लील ख्याल सुनाए जाते हैं। आमजन से लेकर पूर्व महारावल भी इनका लुत्फ उठाते है। पुष्करणा समाज की ओर से निकाली जाने वाली गेरों में गाई जाने वाली इन श्लील गालियों के चलन का ठीक से पता नहीं चल पाता लेकिन यह परंपरा कई वर्षो से निरंतर चली आ रही है। जिसका आज भी निर्वाह हो रहा है। ब्रज की तर्ज पर बनी यह गालियां स्थानीय लोक गीतों पर आधारित है।
ग्यारस से प्रारंभ होती है गेरें:
पुष्करणा समाज की ओर से ग्यारस के दिन दुर्ग स्थित नगर अराध्य श्रीलक्ष्मीनाथ मंदिर से गेर प्रारंभ की जाती है। इसे गेरियों की ग्यारस कहा जाता है। इस बार गेरियों की ग्यारस 4 मार्च को है। दुर्ग से रवाना होकर गोपा चौक, जिंदानी चौक, गांधी चौक होते हुए महारावल के निवास पर पहुंचती है।
महारावल के निवास पर यहां के पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा महारावल को भी श्लील ख्याल सुनाए जाते है। महारावल के निवास से यह गेरे अपने-अपने धड़ों के अनुसार बंट जाती है। होलीका दहन से एक दिन पहले गड़सीसर स्थित बगेचियों में गोठ होती है।जिसकी रात्रि को फिर से समाज के समस्त धड़ों द्वार गेर निकाली जाती है।जो गड़सीसर गेट से प्रारंभ होकर चैनपुरा में समाप्त होती है।
भगवान भी सुनते है गेरियों की:
गेरियों की श्लील ख्यालों से कोई भी अछूता नहीं रहता। आमजन से लेकर भगवान को भी सुनाए जाते है। होली के उल्लास व उमंग में भावविभोर होकर गेरिये भगवान को भी ख्याल सुनाते है। आसनी स्थित मिलाप मंदिर में ठाकुरजी को भी ख्याल सुनाए जाते है।
वयोवृद्ध मुकुनलाल जगाणी ने बताया कि हमारे जमाने में जब होली की गेर निकलती थी तब अन्य समाजों की महिलाएं एवं पुरुष गोपा चौक में एकत्र होकर इनका लुत्फ उठाते थे। प्रमुख रूप से सगे संबंधियों को गालियों से संबोधित किया जाता था। जहां पर भायप होती है वहां श्लील गालियां नहीं गाई जाती।
कई नियमों का रखा जाता है ध्यान
भंवरलाल गोपा ने बताया कि ग्यारस से प्रारंभ होने वाली इन गेरों में कई चीजों का विशेष ध्यान रखा जाता है। दुर्ग की अखे प्रोल से प्रारंभ होती है तथा जिंदानी चौक तथा गांधी चौक में श्लील ख्याल नहीं गाए जाते है। साथ ही उन मौहल्लों में भी गालियां नहीं गाई जाती है जहां संबंधित धड़ों की भायप होती है। जैसे ही गेरे जिंदानी चौक पहुंचती है तो फाग के गीत प्रारंभ होते है वहीं गांधी चौक में भी गेरियों द्वारा फाग गाई जाती है।
तीन पीढ़ियां एक साथ गाती हैं गालियां
चंग की थाप व झांझ की झनक पर गुलाल उड़ाते गेरियों का अलग ही अंदाज है। होली के त्यौहार पर श्लील ख्याल गाने की छूट होने के कारण सभी एक साथ मिलकर इसका लुत्फ उठाते हैं। बड़ों से लेकर छोटे तक गीत गाते है वह भी अदब में।
किसी के साथ भी छेड़खानी नहीं की जाती और न ही किसी व्यक्ति विशेष को सुनाए जाते हैं। गेरों में पांच साल के बच्चों से लेकर 70 साल तक के वृद्ध भी उल्लास के साथ भाग लेते हैं। इन गेरों में दादा-अपने पोते के साथ तो चाचा अपने भतीजे के साथ गालियां गाते दिखाई देते हैं।
यहां तक की होली के दिनों में भगवान को भी श्लील ख्याल सुनाए जाते हैं। आमजन से लेकर पूर्व महारावल भी इनका लुत्फ उठाते है। पुष्करणा समाज की ओर से निकाली जाने वाली गेरों में गाई जाने वाली इन श्लील गालियों के चलन का ठीक से पता नहीं चल पाता लेकिन यह परंपरा कई वर्षो से निरंतर चली आ रही है। जिसका आज भी निर्वाह हो रहा है। ब्रज की तर्ज पर बनी यह गालियां स्थानीय लोक गीतों पर आधारित है।
ग्यारस से प्रारंभ होती है गेरें:
पुष्करणा समाज की ओर से ग्यारस के दिन दुर्ग स्थित नगर अराध्य श्रीलक्ष्मीनाथ मंदिर से गेर प्रारंभ की जाती है। इसे गेरियों की ग्यारस कहा जाता है। इस बार गेरियों की ग्यारस 4 मार्च को है। दुर्ग से रवाना होकर गोपा चौक, जिंदानी चौक, गांधी चौक होते हुए महारावल के निवास पर पहुंचती है।
महारावल के निवास पर यहां के पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा महारावल को भी श्लील ख्याल सुनाए जाते है। महारावल के निवास से यह गेरे अपने-अपने धड़ों के अनुसार बंट जाती है। होलीका दहन से एक दिन पहले गड़सीसर स्थित बगेचियों में गोठ होती है।जिसकी रात्रि को फिर से समाज के समस्त धड़ों द्वार गेर निकाली जाती है।जो गड़सीसर गेट से प्रारंभ होकर चैनपुरा में समाप्त होती है।
भगवान भी सुनते है गेरियों की:
गेरियों की श्लील ख्यालों से कोई भी अछूता नहीं रहता। आमजन से लेकर भगवान को भी सुनाए जाते है। होली के उल्लास व उमंग में भावविभोर होकर गेरिये भगवान को भी ख्याल सुनाते है। आसनी स्थित मिलाप मंदिर में ठाकुरजी को भी ख्याल सुनाए जाते है।
वयोवृद्ध मुकुनलाल जगाणी ने बताया कि हमारे जमाने में जब होली की गेर निकलती थी तब अन्य समाजों की महिलाएं एवं पुरुष गोपा चौक में एकत्र होकर इनका लुत्फ उठाते थे। प्रमुख रूप से सगे संबंधियों को गालियों से संबोधित किया जाता था। जहां पर भायप होती है वहां श्लील गालियां नहीं गाई जाती।
कई नियमों का रखा जाता है ध्यान
भंवरलाल गोपा ने बताया कि ग्यारस से प्रारंभ होने वाली इन गेरों में कई चीजों का विशेष ध्यान रखा जाता है। दुर्ग की अखे प्रोल से प्रारंभ होती है तथा जिंदानी चौक तथा गांधी चौक में श्लील ख्याल नहीं गाए जाते है। साथ ही उन मौहल्लों में भी गालियां नहीं गाई जाती है जहां संबंधित धड़ों की भायप होती है। जैसे ही गेरे जिंदानी चौक पहुंचती है तो फाग के गीत प्रारंभ होते है वहीं गांधी चौक में भी गेरियों द्वारा फाग गाई जाती है।
तीन पीढ़ियां एक साथ गाती हैं गालियां
चंग की थाप व झांझ की झनक पर गुलाल उड़ाते गेरियों का अलग ही अंदाज है। होली के त्यौहार पर श्लील ख्याल गाने की छूट होने के कारण सभी एक साथ मिलकर इसका लुत्फ उठाते हैं। बड़ों से लेकर छोटे तक गीत गाते है वह भी अदब में।
किसी के साथ भी छेड़खानी नहीं की जाती और न ही किसी व्यक्ति विशेष को सुनाए जाते हैं। गेरों में पांच साल के बच्चों से लेकर 70 साल तक के वृद्ध भी उल्लास के साथ भाग लेते हैं। इन गेरों में दादा-अपने पोते के साथ तो चाचा अपने भतीजे के साथ गालियां गाते दिखाई देते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें