Amazing 3D Illusion in Paris
WRONG CALL
WRONG CALL
Husband wanted to call the hospital
to ask about his pregnant wife,
but accidently called the cricket reporter and nearly had heart attack..
to ask about his pregnant wife,
but accidently called the cricket reporter and nearly had heart attack..
He asks, "How's the situation?"
He was shocked & nearly died on hearing the reply.
The reporter said, "It's fine. 3 are out,
hope to get another 7 out by lunch,
last one was a duck!"..
संत रविदास
संत रविदास
मंदिरों में, पूजा-पाठ में, इधर-उधर जा-जाकर आखिर उस प्रेमस्वभाव अपने अंतरात्मा में आये, हृदय ही प्रेम से भरपूर मंदिर बन जाय तो समझो हो गयी भक्ति, हो गया ज्ञान, हो गया ध्यान ! ऐसी भक्ति जिनके जीवन में हो, वे चाहे किसी भी उम्र के हों, किसी जाति के हों, किसी मत, पंथ, महजब के हों, वे सम्मान के योग्य हैं, पूजने योग्य हैं।
चित्तौड़ के राणा ने भगवान श्रीकृष्ण का एक मंदिर बनवाया। फिर सोचा कि ʹमंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा किसके हाथों की जाय ?ʹ विचार विमर्श के बाद राणा को लगा कि संत रविदास जी को ही आमंत्रित किया जाये। आमंत्रण भेजा गया और राणा का आमंत्रण संत रविदास जी ने स्वीकार भी कर लिया।
प्राण-प्रतिष्ठा के निर्धारित दिन से पहले ही संत रविदास जी चित्तौड़गढ़ पहुँच गये। अपने शरीर को, जाति को ही विशेष मानने वाले ब्राह्मणों के जमघट ने आपस में कानाफूसी कीः ʹयह तो अनर्थ हो रहा है ! रविदास जाति का चमार है और वह भगवान की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करेगा ! जूता सीने वाले व्यक्ति के हाथ से श्रीकृष्ण की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा ! कौन जायेगा मंदिर में ? वैदिक मंत्रोच्चारण करने वाले ब्राह्मण से प्राण-प्रतिष्ठा करानी चाहिए। पर राजा का विरोध करना भी सहज नहीं है। अब क्या करें ?ʹ
चित्तौड़ के राणा के कान भरे गये कि ʹयह अनर्थ हो जायेगा !ʹ
राणा ने कहाः "जो भगवान के प्रेमी भक्त हैं, उन भक्तों की, संतों की जाति नहीं होती। संत की जाति क्यों मानते हो ?"
ब्राह्मणों ने देखा कि राजा रविदास के प्रभाव में है लेकिन हमें भी अपना तो कुछ करना पड़ेगा। जिस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा होने वाली थी, उसे अपनी व्यूह रचना से चुरा लिया।
जब प्राण-प्रतिष्ठा का मौका आया तो वह मूर्ति नहीं है ! हाहाकार मच गया। राणा बड़े चिंतित हो गये क्योंकि राज्य की इज्जत का सवाल है। ब्राह्मण लोग राणा के पास आये और बोलेः "आप कहते हो कि रविदास श्रेष्ठ संत हैं। अगर वे ऐसे हैं तो भगवान की मूर्ति को प्रकट करके दिखाएँ। फिर हम लोग उनके हाथों प्राण-प्रतिष्ठा कराने का विरोध नहीं करेंगे।"
राणा ने रविदासजी से प्रार्थना कीः "महाराज ! जिस मूर्ति की आप प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले हैं, वह अदृश्य हो गयी है। अब इस समस्या का समाधान राज्यसत्ता से नहीं हो सकता। साम, दाम, दंड, भेद से यह काम नहीं हो सकता है। केवल आप जैसे संत-महापुरुष चाहें तो राज्य की इज्जत बचा सकते हैं। अन्यथा शत्रु राजाओं को भी मेरी खिल्ली उड़ाने का अवसर मिलेगा।"
रविदास जी ने कहाः "इस छोटी सी बात के लिए चिंता क्यों करते हो, ठीक है, मिल जायेगी। मंदिर के द्वार बंद करवा दो।"
रविदास जी शांत हो गये, "भगवान हैं और वे सर्वसमर्थ हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, प्रेमस्वरूप हैं, सौंदर्य के भंडार हैं, ʹकर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्ʹ सामर्थ्य के धनी हैं। फिर चिंता किस बात की ? हमारा चित्त समर्थ के हाथों में है, पूर्ण के हाथों में है।ʹ
चित्त को उस चैतन्यस्वरूप प्रभु की स्मृति में लगाकर रविदास जी एकांत में बैठ गये। कोई भी बड़े-में-बड़ी समस्या आ जाय तो आप समस्या को अधिक महत्त्व न देना, सृष्टिकर्ता को महत्त्व देना। आप अपने अहं को महत्त्व न देना, परमात्मा को महत्त्व देना। अहं हार मान ले और परमात्मा की श्रेष्ठता, समर्थता स्वीकार कर ले तो प्रार्थना फलने में देर नहीं होती।
रविदास जी ने ध्यानस्थ होकर प्रार्थना कीः "महाराज ! आपकी मूर्ति इन हठी ब्राह्मणों ने कहाँ रखी है यह हम नहीं जानते। अब वह मूर्ति कैसे लायी जाय यह भी हमें पता नहीं लेकिन महाराज ! आप इतने ब्रह्माण्ड बना लेते हो तो अपने-आपकी मूर्ति मंदिर में स्थित कर दो न ! महाराज ! लाज रखो राज्य की और अपने रविदास की, महाराज ! प्रभु जी ! ૐ नमो भगवते वासुदेवाय....
जो सब जगह बस रहा है, उस परमेश्वर को मैं नमन करता हूँ। जो सबका अंतरात्मा है, जो दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं और सदा सबका प्यारा है, उसको मैं नमन करता हूँ। ૐ... ૐ... प्रभु जी ! हे आनन्ददाता, ज्ञानदाता ! कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्। हे देव!
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे !
हे नाथ नारायण वासुदेवा !....ʹ
प्रीतिपूर्वक भगवान की स्मृति करते-करते अपने संकल्प को भगवान में विलय कर देना ही सच्ची प्रार्थना है।
कुछ समय बीतने के बाद रविदास जी को संतोष हुआ, अंतरात्मा में प्रेरणा हुई कि ठाकुर जी आ गये हैं।
रविदासजीः "महाराज ! शहनाइयाँ, बिगुल, बाजे आदि बजवाओ। भगवान पधार गये हैं।"
राणाः "मूर्ति मिल गयी ?"
"अरे, मिल क्या गयी, भगवान आ गये हैं !"
"कैसे, कौन उठा लाया ?"
"ये उठा के लाने वाले भगवान नहीं, स्वयं आने वाले भगवान हैं।"
मंदिर के कपाट खोले तो... ʹओ हो, ठाकुर जी मूर्ति ! जय हो, कृष्ण-कन्हैया लाल की जय !ʹ रविदास जी ने विधिवत मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की। ब्राह्मणों ने रविदास जी का जयघोष किया, कृष्णजी का जयघोष किया। प्राण-प्रतिष्ठा के निमित्त उत्सव हुआ। उत्सव के बाद भोजन होता है। भोजन में बहुत से पकवान एवं व्यंजन बने-घी के लड्डू, चावल, दाल, सब्जी आदि।
राणा ने कहाः "ऐसे महापुरुष हमारे बीच में ही भोजन करेंगे।"
ब्राह्मणों ने कहाः "हद हो गयी ! फिर वही चमार हमारे साथ आ के भोजन करेगा ! यह कैसा आदमी है ! जहाँ रविदास बैठेंगे, वहाँ हम नहीं खायेंगे।"
रविदास जी के कान में बात गयी। रविदासजी ने सोचा, ʹराजा की बाजी बिगड़ेगी।ʹ उन्होंने कहाः "नहीं-नहीं, मैं ब्राह्मणों के बीच बैठने के योग्य नहीं हूँ। ब्राह्मण देवता हैं, जन्मजात शुद्ध हैं, और भी इनके वैदिक कर्म हैं। मैं इनके बीच नहीं बैठूँगा। मैं मंदिर परिसर के बाहर रहूँगा। ब्राह्मणों का भोजन आदि हो जायेगा, बाद में जब मुझे आज्ञा मिलेगी तब मैं आऊँगा। उनकी पत्तलें आदि उठाऊँगा, जो भी सेवा होगी करूँगा।"
रविदास जी बाहर चले गये। मंदिर के परिसर में ब्राह्मणों की कतारें लगीं, भोजन परोसा गया। और ज्यों ही वे लोग ʹनमः पार्वतीपते ! हर हर महादेव !ʹ करके ग्रास लेने लगे, त्यों ही एक ब्राह्मण ने दायीं ओर देखा कि ʹरविदास तो इधर बैठा है ! उसने बोला था बाहर चला जाता हूँ।ʹ बायीं ओर देखा तो उधर भी रविदास ! एक को नहीं, सभी ब्राह्मणों को ऐसा दिख रहा था। अपने को छोड़ के सब रविदास, रविदास ! ब्राह्मण चौंके। इतने सारे रविदास ! कहाँ से आ गये ?
तुम्हारे आत्मा में कितना सामर्थ्य है, कितनी शक्ति है ! अगर योग-सामर्थ्य, ध्यान के अभ्यास से आप अपनी गहराई में जाओ तो आपको ताज्जुब होगा कि "मैं फालतू गिड़गिड़ा रहा था – नौकरी मिल जाय, नौकर बन जाऊँ..... प्रमाणपत्र मिल जाय, ऐसा बन जाऊँ – वैसा बन जाऊँ....ʹ
अरे, तू जो है उसमें गोता मार !
आठवें अर्श1 तेरा नूर चमकदा, होर2 भी उचा हो।।
फकीरा ! आपे अल्लाह हो।
1.आकाश। 2. और।
तेरा खुद खुदा आत्मदेव है। कुछ ब्राह्मण चौकन्ने होकर मंदिर-परिसर से बाहर गये। देखा तो रविदास तो ब्राह्मणों के जूते साफ कर रहे हैं।
ब्राह्मण बोलेः "क्या तुम अंदर घुस गये थे ? हम भोजन कर रहे थे तब तुम हमारे बीच बैठ गये थे क्या ?"
"नहीं-नहीं, मैं तो यही हूँ।"
ब्राह्मणों ने सोचा, ʹयह सच्चा कि वह सच्चा ?ʹ
महाराज ! सच्चा तो वह परमेश्वर है। परमेश्वर जिसको अपना मान लेता है, जो प्रीतिपूर्वक भगवान को भजता है उसको भगवान बुद्धियोग तो देते ही हैं, साथ में अपना सामर्थ्य-योग भी दे देते हैं। उस दाता को देने में कोई देर नहीं लगती। किसको, कब, कहाँ से उठाकर कहाँ पहुँचा दे !
ब्राह्मणों की बुद्धि का प्रेरक, रविदासजी की बुद्धि का प्रेरक ऐसी लीला रचकर हम सबकी आध्यात्मिकता की तरफ चलने की योग्यता भी तो जगा रहा है ! यदि ब्राह्मण ऐसा नहीं करते तो रविदास जी का नाम नहीं चमकता। इस प्रसंग से आने वाली पीढ़ियों को प्रभुप्राप्ति, प्रभुविश्वास की प्रेरणा भी मिली।
मंदिरों में, पूजा-पाठ में, इधर-उधर जा-जाकर आखिर उस प्रेमस्वभाव अपने अंतरात्मा में आये, हृदय ही प्रेम से भरपूर मंदिर बन जाय तो समझो हो गयी भक्ति, हो गया ज्ञान, हो गया ध्यान ! ऐसी भक्ति जिनके जीवन में हो, वे चाहे किसी भी उम्र के हों, किसी जाति के हों, किसी मत, पंथ, महजब के हों, वे सम्मान के योग्य हैं, पूजने योग्य हैं।
चित्तौड़ के राणा ने भगवान श्रीकृष्ण का एक मंदिर बनवाया। फिर सोचा कि ʹमंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा किसके हाथों की जाय ?ʹ विचार विमर्श के बाद राणा को लगा कि संत रविदास जी को ही आमंत्रित किया जाये। आमंत्रण भेजा गया और राणा का आमंत्रण संत रविदास जी ने स्वीकार भी कर लिया।
प्राण-प्रतिष्ठा के निर्धारित दिन से पहले ही संत रविदास जी चित्तौड़गढ़ पहुँच गये। अपने शरीर को, जाति को ही विशेष मानने वाले ब्राह्मणों के जमघट ने आपस में कानाफूसी कीः ʹयह तो अनर्थ हो रहा है ! रविदास जाति का चमार है और वह भगवान की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करेगा ! जूता सीने वाले व्यक्ति के हाथ से श्रीकृष्ण की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा ! कौन जायेगा मंदिर में ? वैदिक मंत्रोच्चारण करने वाले ब्राह्मण से प्राण-प्रतिष्ठा करानी चाहिए। पर राजा का विरोध करना भी सहज नहीं है। अब क्या करें ?ʹ
चित्तौड़ के राणा के कान भरे गये कि ʹयह अनर्थ हो जायेगा !ʹ
राणा ने कहाः "जो भगवान के प्रेमी भक्त हैं, उन भक्तों की, संतों की जाति नहीं होती। संत की जाति क्यों मानते हो ?"
ब्राह्मणों ने देखा कि राजा रविदास के प्रभाव में है लेकिन हमें भी अपना तो कुछ करना पड़ेगा। जिस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा होने वाली थी, उसे अपनी व्यूह रचना से चुरा लिया।
जब प्राण-प्रतिष्ठा का मौका आया तो वह मूर्ति नहीं है ! हाहाकार मच गया। राणा बड़े चिंतित हो गये क्योंकि राज्य की इज्जत का सवाल है। ब्राह्मण लोग राणा के पास आये और बोलेः "आप कहते हो कि रविदास श्रेष्ठ संत हैं। अगर वे ऐसे हैं तो भगवान की मूर्ति को प्रकट करके दिखाएँ। फिर हम लोग उनके हाथों प्राण-प्रतिष्ठा कराने का विरोध नहीं करेंगे।"
राणा ने रविदासजी से प्रार्थना कीः "महाराज ! जिस मूर्ति की आप प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले हैं, वह अदृश्य हो गयी है। अब इस समस्या का समाधान राज्यसत्ता से नहीं हो सकता। साम, दाम, दंड, भेद से यह काम नहीं हो सकता है। केवल आप जैसे संत-महापुरुष चाहें तो राज्य की इज्जत बचा सकते हैं। अन्यथा शत्रु राजाओं को भी मेरी खिल्ली उड़ाने का अवसर मिलेगा।"
रविदास जी ने कहाः "इस छोटी सी बात के लिए चिंता क्यों करते हो, ठीक है, मिल जायेगी। मंदिर के द्वार बंद करवा दो।"
रविदास जी शांत हो गये, "भगवान हैं और वे सर्वसमर्थ हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, प्रेमस्वरूप हैं, सौंदर्य के भंडार हैं, ʹकर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्ʹ सामर्थ्य के धनी हैं। फिर चिंता किस बात की ? हमारा चित्त समर्थ के हाथों में है, पूर्ण के हाथों में है।ʹ
चित्त को उस चैतन्यस्वरूप प्रभु की स्मृति में लगाकर रविदास जी एकांत में बैठ गये। कोई भी बड़े-में-बड़ी समस्या आ जाय तो आप समस्या को अधिक महत्त्व न देना, सृष्टिकर्ता को महत्त्व देना। आप अपने अहं को महत्त्व न देना, परमात्मा को महत्त्व देना। अहं हार मान ले और परमात्मा की श्रेष्ठता, समर्थता स्वीकार कर ले तो प्रार्थना फलने में देर नहीं होती।
रविदास जी ने ध्यानस्थ होकर प्रार्थना कीः "महाराज ! आपकी मूर्ति इन हठी ब्राह्मणों ने कहाँ रखी है यह हम नहीं जानते। अब वह मूर्ति कैसे लायी जाय यह भी हमें पता नहीं लेकिन महाराज ! आप इतने ब्रह्माण्ड बना लेते हो तो अपने-आपकी मूर्ति मंदिर में स्थित कर दो न ! महाराज ! लाज रखो राज्य की और अपने रविदास की, महाराज ! प्रभु जी ! ૐ नमो भगवते वासुदेवाय....
जो सब जगह बस रहा है, उस परमेश्वर को मैं नमन करता हूँ। जो सबका अंतरात्मा है, जो दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं और सदा सबका प्यारा है, उसको मैं नमन करता हूँ। ૐ... ૐ... प्रभु जी ! हे आनन्ददाता, ज्ञानदाता ! कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम्। हे देव!
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे !
हे नाथ नारायण वासुदेवा !....ʹ
प्रीतिपूर्वक भगवान की स्मृति करते-करते अपने संकल्प को भगवान में विलय कर देना ही सच्ची प्रार्थना है।
कुछ समय बीतने के बाद रविदास जी को संतोष हुआ, अंतरात्मा में प्रेरणा हुई कि ठाकुर जी आ गये हैं।
रविदासजीः "महाराज ! शहनाइयाँ, बिगुल, बाजे आदि बजवाओ। भगवान पधार गये हैं।"
राणाः "मूर्ति मिल गयी ?"
"अरे, मिल क्या गयी, भगवान आ गये हैं !"
"कैसे, कौन उठा लाया ?"
"ये उठा के लाने वाले भगवान नहीं, स्वयं आने वाले भगवान हैं।"
मंदिर के कपाट खोले तो... ʹओ हो, ठाकुर जी मूर्ति ! जय हो, कृष्ण-कन्हैया लाल की जय !ʹ रविदास जी ने विधिवत मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की। ब्राह्मणों ने रविदास जी का जयघोष किया, कृष्णजी का जयघोष किया। प्राण-प्रतिष्ठा के निमित्त उत्सव हुआ। उत्सव के बाद भोजन होता है। भोजन में बहुत से पकवान एवं व्यंजन बने-घी के लड्डू, चावल, दाल, सब्जी आदि।
राणा ने कहाः "ऐसे महापुरुष हमारे बीच में ही भोजन करेंगे।"
ब्राह्मणों ने कहाः "हद हो गयी ! फिर वही चमार हमारे साथ आ के भोजन करेगा ! यह कैसा आदमी है ! जहाँ रविदास बैठेंगे, वहाँ हम नहीं खायेंगे।"
रविदास जी के कान में बात गयी। रविदासजी ने सोचा, ʹराजा की बाजी बिगड़ेगी।ʹ उन्होंने कहाः "नहीं-नहीं, मैं ब्राह्मणों के बीच बैठने के योग्य नहीं हूँ। ब्राह्मण देवता हैं, जन्मजात शुद्ध हैं, और भी इनके वैदिक कर्म हैं। मैं इनके बीच नहीं बैठूँगा। मैं मंदिर परिसर के बाहर रहूँगा। ब्राह्मणों का भोजन आदि हो जायेगा, बाद में जब मुझे आज्ञा मिलेगी तब मैं आऊँगा। उनकी पत्तलें आदि उठाऊँगा, जो भी सेवा होगी करूँगा।"
रविदास जी बाहर चले गये। मंदिर के परिसर में ब्राह्मणों की कतारें लगीं, भोजन परोसा गया। और ज्यों ही वे लोग ʹनमः पार्वतीपते ! हर हर महादेव !ʹ करके ग्रास लेने लगे, त्यों ही एक ब्राह्मण ने दायीं ओर देखा कि ʹरविदास तो इधर बैठा है ! उसने बोला था बाहर चला जाता हूँ।ʹ बायीं ओर देखा तो उधर भी रविदास ! एक को नहीं, सभी ब्राह्मणों को ऐसा दिख रहा था। अपने को छोड़ के सब रविदास, रविदास ! ब्राह्मण चौंके। इतने सारे रविदास ! कहाँ से आ गये ?
तुम्हारे आत्मा में कितना सामर्थ्य है, कितनी शक्ति है ! अगर योग-सामर्थ्य, ध्यान के अभ्यास से आप अपनी गहराई में जाओ तो आपको ताज्जुब होगा कि "मैं फालतू गिड़गिड़ा रहा था – नौकरी मिल जाय, नौकर बन जाऊँ..... प्रमाणपत्र मिल जाय, ऐसा बन जाऊँ – वैसा बन जाऊँ....ʹ
अरे, तू जो है उसमें गोता मार !
आठवें अर्श1 तेरा नूर चमकदा, होर2 भी उचा हो।।
फकीरा ! आपे अल्लाह हो।
1.आकाश। 2. और।
तेरा खुद खुदा आत्मदेव है। कुछ ब्राह्मण चौकन्ने होकर मंदिर-परिसर से बाहर गये। देखा तो रविदास तो ब्राह्मणों के जूते साफ कर रहे हैं।
ब्राह्मण बोलेः "क्या तुम अंदर घुस गये थे ? हम भोजन कर रहे थे तब तुम हमारे बीच बैठ गये थे क्या ?"
"नहीं-नहीं, मैं तो यही हूँ।"
ब्राह्मणों ने सोचा, ʹयह सच्चा कि वह सच्चा ?ʹ
महाराज ! सच्चा तो वह परमेश्वर है। परमेश्वर जिसको अपना मान लेता है, जो प्रीतिपूर्वक भगवान को भजता है उसको भगवान बुद्धियोग तो देते ही हैं, साथ में अपना सामर्थ्य-योग भी दे देते हैं। उस दाता को देने में कोई देर नहीं लगती। किसको, कब, कहाँ से उठाकर कहाँ पहुँचा दे !
ब्राह्मणों की बुद्धि का प्रेरक, रविदासजी की बुद्धि का प्रेरक ऐसी लीला रचकर हम सबकी आध्यात्मिकता की तरफ चलने की योग्यता भी तो जगा रहा है ! यदि ब्राह्मण ऐसा नहीं करते तो रविदास जी का नाम नहीं चमकता। इस प्रसंग से आने वाली पीढ़ियों को प्रभुप्राप्ति, प्रभुविश्वास की प्रेरणा भी मिली।
दुनिया की 15 सबसे खतरनाक सड़कें
दुनिया की 15 सबसे खतरनाक सड़कें
दुनिया में कुछ सड़कें ऐसी हैं जो मौत का रास्ता कहलाती हैं। ऐसे सड़कों पर चलते हुए जरा सी चूक हो जाती है जानलेवा। दुनिया के ऐसे 15 सड़कों के बारे में तस्वीर सहित जानकारी हम आपके लिए लेकर आए हैं।
जोजी पास, भारत। कश्मीर और लद्दाख के बीच बना यह पहाड़ी रास्ता धूल भरे पगडंडी की तरह लगता हैं। लेकिन यह खतरनाक होते हुए भी लद्दाख को बाकी दुनिया से जोड़ता है।
रोड ऑफ डेथ, बोलिविया
जलालाबाद-काबुल रोड, अफगानिस्तान
काराकोरम हाईवे, पाकिस्तान। चीन और पाकिस्तान के बीच बना है यह हाईवे जिसमें लैंडस्लाइड होना आम बात है। इसे बनाने में ही 810 पाकिस्तानी और 82 चीनी वर्करों की मौत हो गई।
गुओलियांग टनेल रोड, चीन
साइबेरियन रोड, रूस। यह सड़क कीचड़ से भरा रहता है और यहां भयानक जाम लगता रहता है।
ए682 रोड, इंग्लैंड
पैशियोपाउलो-पार्डेकाकी रोड, यूनान
सिचुआन-तिब्बत हाईवे, चीन
हालसेमा हाईवे, फिलीपीन्स
स्किपर्स रोड, न्यूजीलैंड
पैन अमेरिकन हाईवे, कोस्टारिका। यह रोड 13,000 फीट की ऊंचाई पर है। असुरक्षित और गड्ढों से भरा यह सड़क खतरनाक है।
फेयरी मीडोज रोड, पाकिस्तान
ला काराकोल्स पास, चिली
विडो मेकर, ब्रिटेन