सुखमय जीवन की कुंजियाँ


धर्मराज युधिष्ठिर ने पूछाः पितामह ! किस उपाय से मनुष्य अपने सम्पूर्ण आयुष्य तक जीवित रहता है ? क्या वजह है कि उसकी आयु कम हो जाती है ? मनुष्य मन, वाणी अथवा शरीर के द्वारा किन साधनों का आश्रय ले, जिससे उसका भला हो ?
      भीष्मजी बोलेः युधिष्ठिर ! सदाचार से मनुष्य को आयु, लक्ष्मी तथा इस लोक और परलोक में कीर्ति की प्राप्ति होती है। दुराचारी मनुष्य इस संसार में बड़ी आयु नहीं पाता, अतः मनुष्य यदि अपना कल्याण करना चाहता हो तो उसे सदाचार का पालन करना चाहिए। कितना ही बड़ा पापी क्यों ने हो, सदाचार उसकी बुरी प्रवृत्तियों को दबा देता है। सदाचार धर्मनिष्ठ तथा सच्चरित्रवान पुरुषों का लक्षण है।
      सदाचार  ही कल्याण का जनक और कीर्ति को बढ़ाने वाला है, उसी से आयु की वृद्धि होती है और वही बुरे लक्षणों को नाश  करता है। सम्पूर्ण आगमों  में सदाचार ही श्रेष्ठ  बतलाया गया है। सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है और धर्म के प्रभाव से आयु की वृद्धि होती है।
      जो  मनुष्य धर्म का आचरण करते हैं  और लोक कल्याणकारी कार्य  में लगे रहते हैं, उनके दर्शन  न हुए हों तो भी केवल नाम  सुनकर मानव-समुदाय उनसे प्रेम  करने लगता है। जो मनुष्य नास्तिक, क्रियाहीन, गुरु और शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले, धर्म को न जानने वाले, दुराचारी, शीलहीन, धर्म की मर्यादा को भंग करने वाले तथा दूसरे वर्ण की स्त्रियों से सम्पर्क रखने वाले हैं, वे इस लोक में अल्पायु होते हैं और मरने के बाद नरक में पड़ते हैं। जो सदैव अशुद्ध व चंचल रहता है, नख चबाता है, उसी दीर्घायु प्राप्त नहीं होती। ईर्ष्या करने से आयु क्षीण होती है। सूर्योदय के समय और दिन में सोने से आयु क्षीण होती है। जो सदाचारी, श्रद्धालु, ईर्ष्यारहित, क्रोधहीन, सत्यवादी, हिंसा न करने वाला, दोषदृष्टि से रहित और कपटशून्य है, उसे दीर्घायु प्राप्त होती है।
      प्रतिदिन  सूर्योदय से एक घंटा पहले जागकर  मनुष्य धर्म और अर्थ के विषय में विचार करे। सूर्योदय होने तक कभी न सोये, यदि  किसी दिन ऐसा हो जाय तो प्रायश्चित करे, गायत्री  मंत्र का जप करे, उपवास करे  या फलादि पर ही रहे। मौन  रहकर नित्य दंतधावन करे। फिर स्नानादि से निवृत्त होकर प्रातःकालीन संध्या करे। दंतधावन किये बिना देवपूजा व संध्या न करे। देवपूजा व संध्या किये बिना गुरु, वृद्ध, धार्मिक, विद्वान पुरुष को छोड़कर दूसरे किसी के पास न जाय। सर्वप्रथम माता-पिता, आचार्य तथा गुरुजनों को प्रणाम करे।
      जो  प्रातःकाल की संध्या करके सूर्य के सम्मुख खड़ा होता है, उसे समस्त तीर्थों  में स्नान करने का फल मिलता  है और वह सब पापों से छुटकारा  पा जाता है।
      सूर्योदय  के समय ताँबे के लोटे में जल लेकर सूर्यनारायण को अर्घ्य देना चाहिए। इस समय आँखें बंद करके भ्रमूध्य में सूर्य की भावना करनी चाहिए। सूर्यास्त के समय भी मौन रहकर संध्योपासना करनी चाहिए। संध्योपासना के अंतर्गत शुद्ध व स्वच्छ वातावरण में प्राणायाम व जप किये जाते हैं। (नियमित त्रिकाल संध्या करने वाले को रोजी-रोटी के लिए कभी हाथ नहीं फैलाना पड़ता – ऐसा शास्त्रवचन है।) ऋषि लोग प्रतिदिन संध्योपासना करने से ही दीर्घजीवी हुए हैं। उदय, अस्त, ग्रहण और मध्याह्न के समय सूर्य की ओर कभी न देखे, जल में भी उसका प्रतिबिम्ब न देखे।
      वृद्ध पुरुषों के आने पर तरूण पुरुष के प्राण ऊपर की ओर उठने लगते हैं। ऐसी दशा में जब वह खड़ा होकर स्वागत और प्रणाम करता है तो वे प्राण पुनः पूर्वावस्था में आ जाते हैं।
      परस्त्री-सेवन से मनुष्य की आयु  जल्दी ही समाप्त हो जाती है।  इसलिए किसी भी वर्ण के पुरुष  को परायी स्त्री से संसर्ग नहीं करना चाहिए। इसके समान आयु को नष्ट करने वाला संसार में दूसरा कोई कार्य नहीं है। स्त्रियों के शरीऱ में जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता। रजस्वला स्त्री के साथ कभी बातचीत न करे। अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि को स्त्री समागम न करे। अपनी पत्नी के साथ भी दिन में तथा ऋतुकाल के अतिरिक्त समय में समागम न करे। सभी पर्वों के समय ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है। इससे आयु की वृद्धि होती है। यदि पत्नी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय तथा उसे भी अपने निकट न बुलायें। शास्त्र की अवज्ञा करने से गृहस्थी अधिक समय तक सुखी जीवन नहीं जी सकते।
      दूसरों  की निंदा, बदनामी और चुगली  न करे, औरों को नीचा न दिखाये।  निंदा करना अधर्म बताया  गया है, इसलिए दूसरों की और अपनी भी निंदा नहीं करना चाहिए। क्रूरताभारी बात  न बोले। जिसके कहने से दूसरों को उद्वेग होता हो, वह रूखाई से भरी हुई बात नरक में ले जाने वाली होती है, उसे कभी मुँह से न निकले। बाणों से बिंधा हुआ और फरसे काटा हुआ वन पुनः अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचनरूपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव कभी नहीं भरता।
      हीनां (अंधे, काने आदि), अधिकांग (छाँगुर आदि), अनपढ़, निंदित, कुरूप, धनहीन और असत्यवादी मनुष्यों की खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए। नास्तिकता, वेदों की निंदा, देवताओं के प्रति अनुचित आक्षेप, द्वेष, उद्दण्डता और कठोरता इन दुर्गुणों का त्याग कर देना चाहिए।

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