'जूठे सुहाग' से 'सुहागिन' बनाने की परम्परा

बांदा| 'धोबिनिया दइ दे आपन सुहाग, हमार बन्नी हाथ जोरे खड़ी..' यह बुंदेलखण्ड का एक ऐसा वैवाहिक मंगल गीत है जो कन्या को 'सुहागिन' बनाते वक्त गाया जाता है। हिंदू रीति-रिवाज के इस वैवाहिक बंधन में अगड़ों, पिछड़ों और अनुसूचित वर्ग की सात कौमों के मिलन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि दलित वर्ग की महिला के 'जूठे सुहाग' से ही कन्याएं 'सुहागिन' बनती हैं।

राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारणों से भले ही समाज में छुआछूत, भेदभाव और वैचारिक मतभेदों की गहरी खाई हो, पर वैवाहिक बंधन से जुड़ी इस रस्म के दौरान मंडप में एक ऐसा अद्भुत संगम देखने को मिलता है जो कुछ पल के लिए समाज को एक सूत्र में बांधकर बराबरी का दर्जा देने में सफल है। वैवाहिक मंडप में दूर-दूर तक छुआछूत या भेदभाव का किसी से कोई सरोकार नहीं होता।

बुंदेलखण्ड में हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों से सम्पन्न होने वाली वैवाहिक रस्मों में सबसे बड़ी भूमिका समाज के अनुसूचित वर्ग की उस महिला की होती है, जो अपना जूठा सुहाग (मांग में भरा सिंदूर) कन्या की मांग में भरकर उसे 'सुहागिन' बनाती है।

धार्मिक अनुष्ठान और वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न कराने वाले बांदा जनपद के तेंदुरा गांव के बुजुर्ग पंडित मना महराज गौतम बताते हैं, "हिंदू समाज के वैवाहिक कार्यक्रमों में समाज के सात वर्गो की भूमिका अलग-अलग लेकिन अहम होती है। ये सभी लोग पूरे वैवाहिक कार्यक्रम में सभी रस्में पूरी कराकर शादी का गवाह बनते हैं।"

"इस सबके बावजूद एक महत्वपूर्ण अवसर ऐसा भी आता है जब अनुसूचित जाति की एक महिला अपनी मांग में भरे सिंदूर से कन्या को 'सुहागिन' बनाती है। इस रस्म के बाद ही वर-कन्या के सात फेरों की रस्म पूरी की जाती है।"

वह बताते हैं, "कन्या में देवी दुर्गा, चंडी व काली जैसी सात देवियों का तेज मौजूद रहता है। कन्या के तेज को कम करने के लिए इस बिरादरी की महिला के 'जूठे सुहाग' से 'सुहागिन' बनाने का रिवाज है, ताकि कन्या को छूने से वर का अनिष्ट न हो।"

इसी गांव की इस बिरादरी की बुजुर्ग महिला देवकली बताती हैं कि जब मंडप में महिलाएं 'धोबिनिया दइ दे आपन सुहाग, हमार बन्नी हाथ जोड़े खड़ी' गाती हैं, तब बहुत अच्छा लगता है और कन्या पर दया भी आती है।

वह बताती हैं कि उन्होंने सैकड़ों कन्याओं की शादी में शरीक होकर उन्हें अपनी मांग के सिंदूर (सुहाग) से 'सुहागिन' बनाया है। उन्हें हालांकि यह मालूम नहीं कि पीढ़ियों पुराने रिवाज का क्या रहस्य है। वह कहती हैं, "मैं तो सिर्फ अपना 'नेग' समझ कर कन्या को सुहागिन बनाती हूं। इसके बदले उपहार के तौर पर कुछ पैसे मिल जाते हैं।"

बांदा में अतर्रा महाविद्यालय, अतर्रा के समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष डा. अवधेशचंद्र मिश्र कहते हैं, "यह सदियों पुरानी परम्परा है, जिसका उल्लेख समाजशास्त्र की किताबों या धर्मग्रंथों में नहीं मिलता पर ऐसा प्रतीत होता है कि बुजुर्गो ने कामगार कौमों के बीच सामाजिक सौहार्द कायम करने की गरज से 'नेग' के तौर पर हर कौम की भागीदारी सुनिश्चित की हो।"
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