होलिका दहन के साथ इस गांव में होता है कुछ अपशकुन!

महासमुंद.विकासखंड के 193 गांवों में से ग्राम मुढ़ेना ही एक ऐसा गांव है जहां होली नहीं जलाई जाती, और तो और हटरीबाजार भी यहां नहीं लगता। जिला मुख्यालय से करीब 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है इस गांव में होली के मौके पर न तो कोई फाग गाता है और न ही रासनृत्य। कुंवारी गांव धारणा के कारण आज भी यहां होलिका दहन वर्जित है। 
 
शौकिया तौर पर बच्चे गांव से बाहर जरूर नंगाड़ा बजा लेते हैं लेकिन फुहड़ता का प्रदर्शन वहां भी वर्जित है। इस संबंध में ग्राम मुढ़ेना के बड़े-बुजुर्गो का कहना है कि यह परंपरा हमारे पुरखों ने चला रखी है, जिसका पालन अभी तक यहां किया जा रहा है। संभव है इसके पीछे उनकी भावना कुछ और रही होगी लेकिन हमें सिर्फ यह बताया गया कि इस गांव का ब्याह नहीं हुआ है, इसीलिए यहां इसका चलन नहीं है।
 
करीब 70-75 वर्ष पूर्व नांदगांव के मालगुजार रोमपाल सिंह ने यहां होली के मौके पर चलने वाले पुरातन नृत्य कराया था, उसके बाद गांव में महामारी फैल गई थी और ग्रामीण इसका कारण उस नृत्य को मान रहे थे, तब से सभी बुजुर्गो ने होलिका दहन संबंधी क्रियाकलापों से पूरी तरह से तौबा कर रखी है। हालांकि जिस वर्ष की घटना बताई जाती है, उस वर्ष भी यहां होलिका दहन नहीं हुआ था, सिर्फ नृत्य का आयोजन कराया गया था।
 
हालांकि कोई भी ग्रामीण कुंवारी गांव की मान्यता क्यों बनीं हुई के बारे में ठीक से जानकारी नहीं दे पाए, सिर्फ उनके पूर्वजों द्वारा बताई गई जानकारी का ही हवाला दिया। यहां रंग-गुलाल से ही होली खेलते हैं। 
 
गांव के नौजवान अपने बुजुर्गो से जरूर सवाल-जवाब करते हैं। यहां के बुजुर्ग डेरहू केंवट बताते हैं कि वे अपने किशोरावस्था में होलिकादहन देखने और नंगाड़ा सुनने घोड़ारी जाया करते थे। अधिकांश सहपाठी भी घोड़ारी से ही फाग या होलिकोत्सव का आनंद उठाते रहे हैं लेकिन गांव में कभी भी होली का माहौल जम नहीं पाया। भले ही आज इसे अंधविश्वास का अमलीजामा पहनाया जा सकता है किंतु वन है तो जल है, जल है तो कल है की भावना होलिका दहन नहीं करने के पीछे स्पष्ट नजर आती है। लकड़ी की समस्या से यहां के ग्रामीण दो-चार होते रहे हैं।
 
बुजुर्गो के अनुसार कई किलोमीटर तक बैलगाड़ी से वन विभाग द्वारा प्रदाय किए जाने वाले जलाऊ चट्टा ही यहां चूल्हे का मुख्य श्रोत रहा है। जलाऊ चट्टा नहीं मिलने पर महानदी पर उगने वाले बेशरम, झांऊ प्रजाति के झाड़ी पर ही निर्भरता रही है। 
 
 
संभव है इस कारण से भी यहां के लोगों ने लकड़ी के महत्व को समझा होगा और प्रेरणा के लिए परंपरा बनाई होगी। ग्रामीण यह भी कहते हैं कि होलिका दहन के नाम पर अन्य गांवों में लकड़ी की चोरियां, ब्यारा में लगने वाले राचर, मकानों में लगने वाले दरवाजे, खिड़कियां चोरी की घटनाएं आम बात रही है किंतु कभी भी यहां इस तरह की हरकत नहीं हुई।
 
गांव में प्रवेश करते ही पत्थर से बने मकान नजर आएंगे, महानदी के तट पर स्थित होने के कारण फर्शी पत्थर खदान की बाहुलता ने यहां के जीवनशैली में बदलाव किया है। 
 
 
प्राय: सभी घर फर्शी-पत्थर के बने हुए हैं और अमीर-गरीब का भेद यहां नजर नहीं आता। ग्रामीणों के मुताबिक फर्शी-पत्थर में कोई सीपेज नहीं आता, इस कारण बाहर में लोग छबाई भी नहीं कराते, कई मकान सौ साल पुराना होने के बावजूद ज्यों का त्यों है। करीब दो 2 हजार की आबादी वाले इस गांव में निषाद और साहू समाज की अधिकता है। इसके अलावा सतनामी, ठाकुर, रावत व ध्रुव समाज के लोग भी निवास करते हैं। 200 के आसपास घरों की संख्या है, सभी घरों में फर्शी पत्थर नजर आएंगे।
 
होली में हुए नाचख् के बाद गांव में फैली थी महामारी
 
गांव के 80 वर्षीय थनवार साहू बताते हैं कि कुंवारी गांव की मान्यता के कारण यहां बाजार भी नहीं लगता। घोड़ारी या आसपास के गांवों में लगने वाले हाट-बाजार से ग्रामीण चलाते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि उनकी उम्र 10-12 साल रही होगी तब यहां मालगुजार द्वारा होली के मौके पर नाच का आयोजन कराया गया था।
 
उस समय गांव में भंयकर बीमारी फैल गई थी, उसके बाद से तो गांव वालों ने किसी भी प्रकार के आयोजन से तौबा कर ली। उन्होंने जानकारी दी कि ग्राम पंचायत ने हटरी बाजार लगाने का प्रस्ताव पारित किया है किंतु अभी यहां बाजार भरना शुरू नहीं हुआ है। यदि बाजार लगता है तो इस पर परिस्थितियों को देखते हुए किसी को शायद ही आपत्ति होगी।
 
दुर्गा पूजा पर भी लगाया गया था गांव में प्रतिबंध
 
गांव के 70 वर्षीय पुनाराम साहू बताते हैं कि पहले गांव में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित भी नहीं की जाती थी। करीब 10-12 वर्ष पूर्व यहां के उत्साही नौजवानों ने इस दिशा में पहल किया और किसी ने विरोध नहीं किया, धीरे-धीरे दुर्गोत्सव का आयोजन क्वांर माह में प्रतिवर्ष होने लगा। 
 
 
उन्होंने यह भी जानकारी दी कि नंगाड़ा गांव के बाहर बच्चे जरूर बजाकर मनोरंजन कर लेते हैं किंतु बड़े-बुजुर्ग आज भी उससे दूरी बनाए रखते हैं। इतना जरूर है कि होलिका दहन के दूसरे दिन रंग-गुलाल में लोग एक-दूसरे का अभिवादन जरूर करते हैं किंतु होली के मौके पर आम तौर पर होने वाले फुहड़ता यहां पूरी तरह से प्रतिबंधित है। श्री साहू ने बताया कि आजकल कुछेक बच्चे पुरानी परंपरा को भी तोड़ने में लगे हुए हैं।

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